प्रथम नमन माँ शारदे,करो कंठ में वास ।
कृपा-दृष्टि करो दीन पर,कर दो तम का नाश ।।
है विघ्न- विनाशी,गणनायक,गौरीसुत मुझ पर दृृष्टि करो ।
फूले ना फसल कभी तम की,ऐसी .प्रकाश की वृष्टि करो ।।
वीरोचित वर्णन करने को,आओ काली का ध्यान करें ।
निज मातृभूमि की मिट्टी का,प्राणों से बढ़कर मान करें ।।
सम्पूर्ण जगत में यह धरती,कुछ अलग चित्र दर्शाती है ।
जन्म हेतु मानव तो क्या,यह देवों को तरसाती है ।।
भारत वीरों की धरती बन,दस दिशि में सुयश कमाता है ।
है भरतभूमि को नमन मेरा,जो महापुरुष उपजाता है ।।
कहलाती है जो आर्यभूमि,वीरों की खान भी हैं कहते ।
लाखों संकट भी सहकर जो,निज आन-मान से हैं रहते ।।
माता पर संकट पड़ने पर,अपना सर्वस्व लुटाते हैं ।
सर्वस्व लुटा माँ चरणों में,जग में भी नाम कमाते हैं ।।
वीरों की गिनती जब होगी,तो नाम प्रथम यह आना है।
है कौन तुल्य रजपूतों के,कुल जिनका राजपुताना है ।।
जिनका स्मरण आ जाते ही,कुछ चित्र अलग ही बनते हैं।
मातृभूमि की रक्षा हित,सिर कन्धों पर ना समझते हैं ।।
दुश्मन की बोली सुनकर ही,हर-हर की नाद बोलते हैं ।
यदि महाकाल भी समर करें,निज भुजबल सदा तोलते हैं ।।
प्रण एक लिया है जीवन में,निर्बल को कभी ना मारें हम ।
सम्मुख हों रण में कार्तिकेय,तो भी निज शस्त्र सँवारे हम।।
प्राणों की रक्षा ना करके,निज वचन सदैव पालते हैं ।
मृत्यु भी बाधक बने अगर, तो उसका मान टालते हैं ।।
ऐसे वीरों को जन्म दिया,जो राजस्थान की धरती है ।
गणना जब वीरों की होती,तो गिनती ना हो सकती है ।।
बप्पा रावल,राणा कुम्भा,रतन,जो मान बढ़ाते हैं ।
नहीं काल की चिन्ता कर,रण चढ़कर लौह चबाते हैं ।।
इनके कुल में पैदा होकर,वीरों में सुयश कमाया है ।
जीवन संग्राम समर्पित कर,संग्राम सिंह कहलाया है ।।
राणा साँगा भी हैं कहते,सिर उनको लोग झुकाते हैं ।
इस मातृभूमि की रक्षा हित,निज अंगों को भी गँवाते हैं ।।
घावों के चिन्ह जो तन पर थे,प्रत्यक्ष गवाह वीरता के।
धनी थे साँगा,न्यायी थे,सब गुण थे विवेकशीलता के ।।
यवनों के आक्रमण उस अवसर,भारत पर होते रहते थे ।
माता की गोद,माँग सूनी,सब घर उजड़े ही रहते थे ।।
बाबर नामक एक आक्रान्ता,वह तुर्क गर्व मे आया था ।
शासन करने इस धरती पर,निज सैन्य सजाकर लाया था ।।
दिल्ली पर हमला करने को,पानीपत के मैदान गया।
नाम मिटाया लोदी का,कब्जा फिर अपना किया वहाँ।।
साँगा की बढ़ती शक्ति देख,बाबर शासक घबराता है।
है परामर्श करता सबसे,पर उत्तर खोज ना पाता है।।
राणा पर रण रचने की,जब-जब वह बात ठानता है।
मजबूत बहुत करता दिल को,पर दिल ही हार मानता है।।
आखिर बाबर ने सोंच-समझ,आक्रमण करने की ठानी है।अब जीवन-ज्योति शेष नहीं,यह तो खुद मृत्यु बुलानी है।।
खानवा के मैदानों में,अब बाबर चलकर आया है ।
साँगा ने यह संदेशा,निज सेवक से जब पाया है।।
संदेशा सेवक से सुनकर,रण करने हित तैयार हुआ ।
सज गया सिंह,वह रण-केहरि,शिव-ताण्डव हेतु विचार हुआ।
बोला साँगा सामन्तों से,जब-जब रजपूत गरजते हैं ।
लोहू की सरिता बहती हैं,जब बनकर मेघ बरसते हैं ।।
है अमर नहीं कोई जग में,इक दिन सबको ही मरना है
दुनिया तो आनी-जानी है,आखिर तक किसको रहना है ।।
बातें करने का समय नहीं,रणचण्डी का सम्मान करें ।
निज मातृभूमि की रक्षा हित,अरि प्राणों का बलिदान करें ।।
यह कहकर साँगा ने तुरन्त, निज सेना को आदेश दिया ।
तत्क्षण गज आगे बढ़ा दिया,रिपु-दल में तुरत प्रवेश किया।।
रिपु-दल मे रिपु को काट-काट,था राणा ने यह हाल किया ।
जीवित मृतकों में बदल गये,ऊपर लाशों को डाल लिया ।।
जैसे अति कार्य-कुशलता से,निज खेती कृषक काटते हैं ।
या फिर जिस कौशल-बल से,गायों को सिंह मारते हैं ।।
उसी भाँति अब साँगा से,अरि-दल का दमन हो रहा है।
रणस्थल में थी त्राहि-त्राहि,ज्यों लंका-दहन हो रहा है ।।
रजपूती-तेगें रण में जब,मुगलों के शीश उड़ाती थीं ।
मानों प्यासी थीं रणचण्डी,सो अपनी प्यासी बुझाती थीं ।।
साँगा ने बढ़कर बाबर पर,था प्रबल-प्रचण्ड प्रहार किया ।
बाबर जा दुबका हौदे में,महावत का शीश उतार लिया ।।
तत्क्षण घबराकर बाबर नें,तोपों के मुख को खुलवाया ।
रजपूती साहस को लखकर,वह हुआ अचम्भित चकराया ।।
रजपूत काल का रूप धार,हमको समूल निपटायेंगे ।
अल्लाह की है शपथ हमें,मदिरा ना हाथ लगायेंगे ।।
मुगलों को था आदेश दिया,तुम रजपूतों पर चढ़ जाओ ।
केसरिया आँधी के पथ पर,सब पर्वत बनकर अड़ जाओ ।।
कुछ योद्धा अपने मत में कर,बाबर अति खुशी हो रहा है।
था सोम चला अब अस्ताचल,भास्कर का उदय हो रहा है।।
अपनों ने हमको सदा छला,बस बात नीति यह कहती है।
घर के भेदी जब बने विभीषण,सोने की लंका ढहती है।।
प्रातःकाल की बेला में,विषपान कराया जाता है।
शेर पकड़ने की खातिर,गढ्ढा खुदवाया जाता है ।।
राणा को शंका नहीं जरा, विषपान आज कर लेते हैं।
फिर शीश उड़ाने मुगलों के,कृपाण हाथ में लेते हैं ।।
युद्धभूमि में रण-केहरि,अतुलित बल- शौर्य दिखाता है।
पीछे हटता है फिर रिपु-दल,पर राणा बढ़ता जाता है।।
राणा रण रचता अरि-दल से,विष का भी असर हो रहा है।
निज घावों को कसता जाता है,यदि घावों कहीं हो रहा है।।
मुगलों के व्यूह को राणा ने था,इस प्रकार कुछ मथ डाला ।
शत-शत मुगलों के छौनों को,लोहू से लथपथ कर डाला।।
अन्तिम बेला थी साँगा की,सो था जीवन का क्षरण हुआ।
वीर रहा इस जीवन में,और वीर-मृत्यु का वरण हुआ।।
साँगा की निर्मम हत्या का,उत्तरदायी क्यों,कौन है?
इस यक्ष-प्रश्न के उत्तर पर,इतिहास खड़ा क्यों मौन है?
साँगा का पुत्र उदय सिंह था,अब गद्दी पर आरूढ़ हुआ ।
चित्तौड़ दुर्ग पर हमले से,राणा किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ ।।
वह बागडोर ना थाम सका,कुछ ऐसी विषम परिस्थिति थी ।
कहने को चित्तौड़ नृपति थे वह,पर सामन्तों सी स्थिति थी ।।
मुगलों ने आक्रमण किया,तो दुर्ग छोड़कर चला गया ।
वीर पिता की यशगाथा,मिट्टी में मिलाकर चला गया ।।
याद करें यदि उदय सिंह,तो केवल यह ही कारण है ।
वह धन्य पुत्र का पिता बना,जो पितृ नाम जगतारण है ।।
हुआ प्रतापी पुत्र बड़ा,प्रताप नाम से प्यारा था ।
शीश झुकाये जग जिसको,वह वीर बड़ा ही न्यारा था।।
बाल्यकाल ही से उसके ,सब काज अजब मतवाले थे ।
जो खिलौने खेलते थे प्रताप,वे केवल बरछी-भाले थे।।
कुछ दिवस बीत गये इस प्रकार,बालक भी था कुछ बड़ा हुआ।
साक्षात् बन गया बबर सिंह,जो घोर विपिन में खड़ा हुआ ।।